दीपावली

जो सितारों को मुँह चिढाएँगे,आज वो दीप हम जलाएँगे। आँख दुनिया की चौंधियाएँगी,इस कदर रोशनी लुटाएँगे। जीते हैं अबभी जो अँधेरों में,उनको हम रोशनी में लाएँगे। जो हैं रूठे उन्हें लगाके गले,दिल की हम दूरियाँ मिटायेंगे। उम्रभर दिल को उजाले देगी,आस की एक लौ जलाएँगे। ©अनु उर्मिल ‘अनुवाद’

वैचारिक पतन

        फ़िल्मो और खेल को ज़ुनून समझने वाले इस देश में प्रशंसकों की परिपक्वता पर मुझे हमेशा संदेह रहा है। यहाँ प्रशंसकों की मोहब्बत बुख़ार की तरह है जो प्रदर्शन के अनुसार चढ़ता उतरता रहता है। खिलाड़ियों से चमत्कारिक प्रदर्शन की उम्मीद लगाना और यदि वे आशाओं के अनुरूप प्रदर्शन न कर पाएँ तो उनके परिवार,Continue reading “वैचारिक पतन”

अभिशप्त शब्द

कितने अभागे हैं वो शब्दजो रह गए अनकहेताकि बनी रहे कथ्य की सुंदरता…! मौन रहकर उन्होंने अपने सर लिया दोषकुछ कोमल भावनाओं की असमय मृत्यु का..!! वे भावनाएँ निहारतीं रहींआशा से उन शब्दों की ओर,तरसती रहीं अभिव्यक्ति के लिएऔर अंततःसोंख ली गईं प्रतीक्षा द्वारा हृदय के तल सेजैसे तीखी धूप सोंख लेती है गीली मिट्टीContinue reading “अभिशप्त शब्द”

गांधी की प्रासंगिकता

” श्रम के बगैर संपदा, आत्मा के बगैर आनंद, मानवता के बगैर विज्ञान, चरित्र के बगैर ज्ञान, सिद्धांतों के बगैर राजनीति, नैतिकता के बगैर व्यापार और त्याग-बलिदान के बगैर पूजा-अर्चना..ये सात सबसे जघन्य पाप हैं।” ~ महात्मा गांधी ‘महात्मा गांधी’ किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं बल्कि हज़ारों वर्ष पुराने मानवीय मूल्यों के जनक देशContinue reading “गांधी की प्रासंगिकता”

हृदय

हृदयदेह के जीवित रहने मेंसहायक एक अंग मात्र नहीं है..!! अपितु,यह वो स्थान हैजहाँ प्रस्फुटित होते हैंउन कोमल भावनाओं के अंकुर..,जो बनाती हैंएक साधारण मनुष्य को देवतुल्य..!! ख़्याल रखिये अपने हृदय काक्योंकि हृदय की शिथिलता,वास्तव में शिथिलता है मानवता की..!! ~ अनु उर्मिल ‘अनुवाद’

बेटियाँ

फूल की महकी कली हैं बेटियाँ,नूर सी  सबको  मिली हैं बेटियाँ। रंजिशो औ’ नफ़रतों  के  दौर में,आज भी कितनी भली हैं बेटियाँ। मतलबी लोगों की फ़ैली भीड़ में,हाथ थामे  संग  चली  हैं बेटियाँ। चंद सिक्कों के  लिए ससुराल में,रोज़ ही  ज़िन्दा  जली  हैं बेटियाँ। ज़ुल्म सह लेती  हैं वो हँसते हुए,घर में  नाज़ों से  पलीContinue reading “बेटियाँ”

हिन्दी से कतराना क्यों

हिन्दी भाषी, भारत वासी नाम से यूँ शरमाना क्योंजो भाषा है पहचान तेरी उस भाषा को ठुकराना क्यों हिन्दी है व्यवहार की भाषा, ये भाषा है संस्कारों कीनूतनता के बहकावे में अपने संस्कार भुलाना क्यों आरोपण भाषा का भाषा पे, बेमतलब की बातें हैंजो आश्रय देती सबको उस पे आक्षेप लगाना क्यों जो बसी हमारेContinue reading “हिन्दी से कतराना क्यों”

ख़ुमार

तेरे दीवानों  में  नाम मेरा भी  शुमार न होये कैसे मुमकिन  है तुमसे मुझे प्यार न हो। एक  लम्हा  भी  ऐसा  मेरा  गुज़रता  नहीं,कि मैं  सोचूँ तुम्हें और  मुझे ख़ुमार न हो। मेरी  वो   रात   बहुत   बदनसीब   होती  है,जिस रात ख़्वाब में मुझको तेरा दीदार न हो। डूब के दरिया में भी कोई प्यासा हीContinue reading “ख़ुमार”

अप्राकृतिक

संभव हैमैं सही और ग़लत मेंफ़र्क करना नहीं जानती,परंतु मैं स्वतंत्रता को जानती हूँमैं जानती हूँआत्मा के स्वभाव कोजो है पराधीनता के बंधन से परे..!! मैं प्रकृति की नियमावली को नहीं जानतीपरन्तु मैं जानती हूँ अधिकारों कोमैं प्रश्न करना चाहती हूँअधिकारों के झंडाबरदारों से,कि आखिर क्या सीमाएँ हैं किसी इंसान केन्यूनतम अधिकारों की उनकी नियमContinue reading “अप्राकृतिक”

संगीत दिवस

तुम्हारे हृदय का स्पंदनइस संसार का मधुरतम संगीत हैजिसकी ताल पर मेरी आत्माअपने ईष्ट के ध्यान में मग्नकिसी योगिनी की भाँति थिरकती है..!! ©अनु उर्मिल ‘अनुवाद’ (21/06/2021)

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